वाराणसी: अघोर दर्शनः बाबा कीनाराम की समाधि, न अंत, न आदि
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वाराणसी। काल-परिस्थितियों के संक्रमणकालीन दौर में वैयक्तिक साधना स्थलों में सुप्तसमय चक्र में लुप्त औघड़दानी शिव और भगवान दत्तात्रेय द्वारा प्रवर्तित अघोर दर्शन को जब अघोराचार्य बाबा कीनाराम ने 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध में काशी के केदारखंड स्थित उसकी मूलपीठ पर पुनर्प्रतिष्ठित किया तो अनादि काल से मानवीय जीवन शैली का एक अंग रहा यह मत एक बार फिर अपने पूर्ण प्रभाव के साथ अस्तित्व में आया। अनेकानेक चमत्कारों और साधना के उच्चतम शिखर की उपलब्धियों के दम पर बाबा कीनाराम ने इसके आध्यात्मिक गुण-धर्म को सहज-सरल सूत्रों के रूप में जन-जन तक पहुंचाया।
वास्तव में अघोर दर्शन महज किसी धर्म, परंपरा, संप्रदाय, मत, पंथ या पथ के दायरे में बंधा हुआ कोई कर्मकांड या अनुष्ठान नहीं अपितु एक उन्मुक्त विचार-आचार है एक अवस्था का। इसे आप एक विशेष मानसिक स्थिति की संज्ञा भी दे सकते हैं। अघोर दर्शन के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाओं की कसौटी पर कस कर देखें तो यह आध्यात्मिक उत्कर्ष की सर्वाधिक सहज किंतु सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। अलग-अलग देश, भाषा-भूषा और वेश के आधार पर दुनिया ने इसके साधकों को औघड़, अवधूत, कापालिक, सांकल्य, परमहंस, औलिया, मलंग, साईं या फिर विदेह के स्वरूप में जाना-पहचाना है। साधारण तौर पर देखें तो अपनी-अपनी दृष्टि और सोच के मुताबिक उन्हें कभी संत तो कभी साक्षात भगवद रूप में पूजा और उनकी सत्ता को माना है। उनके विचारों का वरण और पदचिह्नों का अनुसरण किया है।
जब बाबा ने माया रचाई, धुनि पुन-रमाई
बाबा कीनाराम स्थल के रूप में इस श्सिद्ध भूमिश् को मिली मर्यादा और मान्यता के चलते आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस तपस्थली का उद्भव बाबा कीनाराम के ही समय-काल का है। मगर अघोराचार्य ने स्वयं प्रतिपादित किया है कि काशी के केदार खंड की यह श्दिव्य स्थलीश् अनादि काल से ही अनेक सिद्धों द्वारा पूजित और सेवित है।
महत्ता देव तीर्थों से कमतर नहीं
अघोराचार्य बाबा कीनारामजी के 170 वर्ष की आयु में समाधिस्थ होने के बाद पीठ के पीठाधीश्वरों की श्रृंखला 11 स्वर्णिम कड़ियों के साथ श्फलती-फूलती रही।श् वर्तमान में अघोरी बाबा सिद्धार्थ गौतम रामजी इस अजस्त्र परंपरा के ध्वज वाहक स्वरूप में पूजित-प्रतिष्ठित हैं। वैसे तो रवींद्रपुरी (पूर्व नाम बेलवरिया) में अवस्थित इस सिद्ध स्थली का कण-कण ही वंदनीय है। फिर भी अघोराचार्य द्वारा मंत्राभिषिक्त क्रीं कुंड, अखंड धुनि, स्थली का मुख्य द्वार, अघोराचार्य की समाधि और तख्त गुरु आसन आदि कुछ ऐसे ठांव हैं जिनकी महत्ता देव तीर्थों से तनिक कमतर नहीं।
चमत्कार को नमस्कार
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार पीठ परिसर के परम प्रभावी क्रीं कुंड की महत्ता भगवान सदाशिव के जीवंत स्वरूप में बताई गई है। बाबा कीनाराम द्वारा स्वयं अभिमंत्रित कुंड के जल में स्नान का महत्व समस्त तीर्थों से भी प्रभावी बताया गया है। संतति-कंतति की कामना के साथ चर्म रोगों के निवारणार्थ करोड़ों लोग लोक पर्वों के सामूहिक स्नान के अलावा तीर्थ रूप में नियमित स्नान का पुण्य लाभ उठा कर कृतार्थ हो चुके हैं।
वंदनीय बाबा की अखंड धुनि
आश्रम परिसर के पश्चिमी छोर पर श्मशान की लकड़ियों से अखंड प्रज्वलित धुनि भी साक्षात अग्नेय रूद्र का स्वरूप बताई गई है। इसकी विभूति का स्पर्श और धारण मुक्ति-भुक्ति दोनों की ही पर्याय बताई गई है। मुख्य द्वार या मोक्ष द्वार दो कपाल मुंडों से सुसज्जित सिद्ध स्थली का मुख्य द्वार क्रियाकर्म का सूचक नहीं वरन् प्राण वायु के स्तंभन का प्रतीक है। अंतिम संस्कार के समय की कपाल क्रिया के बाद ही प्राण वायु को मुक्ति मिलती है। इस संदेश का वाहक भी है यह मुख्य द्वार।
आदि-अंत अनंत
खुली आंखों से बाबा कीनाराम की लाल पत्थरों से रची समाधि सिर्फ एक वंदन स्थल नहीं, एक दिव्य शिल्प है जिसे मां हिंगलाज द्वारा स्वयं महाविभूति स्थल की संज्ञा दी गई है। अंतर चेतना से निरखें तो इसका आदि-अंत अनंत है।
गुरु आसन, स्थिरता का अनुशासन
परिसर की अंगनाई में शीशे के फ्रेम में स्थिर तख्त वास्तव में अघोराचार्य बाबा कीनाराम का वह आसन है जिस पर वे विशेष अवसरों पर विराजमान हुआ करते थे। बाबा के समाधिस्थ होने के बाद यह चमत्कारी आसन उन्हें ढूंढ़ने निकल जाया करता था। बाद में तत्कालीन आचार्यों ने इसका वंदन कर इसे स्थिर किया।