हर साख पे दुश्मन बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ?
आज देश भर में कोई ऐसी जाति धर्म अथवा वर्ग नहीं जो बड़े बड़े दावे करने के बावजूद अपनी जाति की राजनीति हत्या करके मात्र अपना उल्लू साधनें में न लगा हो, जिसमें सबसे पहला नम्बर सर्वाधिक वोट रखने वाली अतिपिछड़ी जातियों के नेताओं का आता है या यू कहे कि जाति के नाम पर अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले उन सामाजिक संगठनों के लोगों का आता है जो अपने ही समाज को गुमराह करके गुमनामी के जंगल से निकालकर अपना धंधा चलाने में लगे रहते हैं। चलों देश के प्रत्येक राज्य के अधिकांश गांव में रहने वाले पाल प्रजापति सैनी बढई कश्यप सैन सविता नंद सिंगाड़िया भड़भूजा भूईयार कुशवाहा मौर्य विश्वकर्मा कनौजिया चैरसिया बारी आदि जातियों को ही लें तो सैन सविता नंद समाज का आज तक उत्तर प्रदेश में निर्वाचित सांसद विधायक सदन नहीं पहुंच सका, हां दो चार ऐसे चेहरे जरूर रहे जिन्होंने अपनी साख या अपने पुरखों के नाम से राज्य सभा या विधान परिषद में एक नही दो दो बार इन सदनों सदस्यता हासिल की लेकिन चुनाव किसी पार्टी ने इन्हें टिकट देकर विधायक सांसद नही बनाया। अतिपिछड़ी जातियों में आने वाली अन्य जातियों का भी लगभग यही हाल रहा लेकिन जिसने भी सामाजिक संगठन चलाने का काम किया उसका मकसद किसी तरह खुद के लिए पद पाने तक सीमित रहा, किसी ने यह हिसाब नहीं लगाया या उसे इतनी लज्जा नहीं आई कि वह अपनी जाति के सम्मान शिक्षा स्वास्थ्य और सुरक्षा रोजगार के लिए आगे कदम बढ़ा सकें। मैं तो कहता हूं कि डूबकर मर जाना चाहिए ऐसे सामाजिक चिंतकों को जो आज तक किसी अतिपिछड़े को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बना सकें। मैं पूछना चाहता हूं इन समाज के ठेकेदारों से कि भईया आखिर कब तक अपने अपने महापुरूषों का नाम चंदे के सहारे बड़बोली करते रहोगे। ध्यान रहे सामाजिक संगठनों के सहारे आप लोग एक दो लोगों को विधायक सांसद मंत्री बनाकर एक किराऐदार की तरह मकान की रिपेयरिंग तो करा सकते हो लेकिन अपने गरीब समाज को उसके संवैधानिक मूलभूत अधिकार नहीं दिलवा सकते। मुझसे काफी लोग कहते है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टियां देश में सर्वाधिक वोट रखने वाले अतिपिछड़ों की दुश्मन रही है क्योंकि किसी ने आजादी के बाद से अब तक जनसंख्या अनुपात में सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी जबकि प्रत्येक समस्या का समाधान सत्ता की चाबी मानी जाती है जो हर समस्या का ताला खोलने ताकत रखती है लेकिन यह अतिपिछड़ा समाज ही तो है जो अपना भोलापन कहें या बड़बोलापन बिल्ली से दूध की रखवाली की उम्मीद करता रहा है जबकि कौन नहीं जानता कि पशु हो या जानवर यदि घास से दोस्ती करेगा तो खाऐगा क्या, और राजा यदि प्रजा को सिंहासन पर बैठाएगा तो खुद कहां बैठेगा। आज अतिपिछड़ी जाति के लोग हो या अन्य गैर इस्लामी जातियां वह मोदी जी की भक्ति में लीन चली आ रही थी लेकिन मोदीजी क्या स्वयं दलित ओबीसी से आने वाली सपा बसपा ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि सर्वाधिक वोट रखने वाली अतिपिछड़ी जाति के किसी व्यक्ति को उत्तर प्रदेश में सरकार की कमान सौंप दें। मैं यह भी दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे राष्ट्रीय स्तर पर हो या राज्य स्तर पर संचालित राजनीतिक संगठन इन अतिपिछड़ी जातियों का इनमें कोई गुनाहगार नहीं है यदि कोई गुनाहगार है तो स्वयं इन जातियों के सामाजिक संगठन चलाने वाले स्वयं भू ठेकेदार हैं जो अपनी चंदे खोरी के चक्कर में इन जातियों को जमात में नहीं बदलना चाहते और वर्तमान में संचालित सियासी दलों से बड़े गुनाहगार तो उन जातियों के लोग हैं जो अपनी आर्थिक सामाजिक शैक्षणिक सम्पन्नता के चलते चाहें राजनीतिक पद हो या सरकारी, अपने छोटे भाईयों का पूरा हिस्सा डकार जाते हैं जिनके डर से कोई सरकार आज तक सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू नहीं कर सकी क्योंकि वर्तमान रूलिंग पार्टी सहित विपक्षी दल भी यह सोचते हैं कि यदि सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू कर दी गई तो आरक्षण का नव्वे प्रतिशत हिस्सा खानें वाली ओबीसी की बाहुबली जातियां नाराज हो जाएगी क्योंकि अतिपिछड़ों में आने वाली जातियों की संख्या भले ही चालीस प्रतिशत से ज्यादा हो लेकिन इनके वोट का ठेका लेने वाले गारंटीदारो की कमी नहीं है। और ओबीसी की सत्ताईस प्रतिशत जातियों की नाराजगी झेलनी मुश्किल है ऐसी स्थिति में अतिपिछड़ी जातियां बिना सिद्धांत वाले सामाजिक संगठनो की शिकार होती चली आ रही है। मैं तो यहां तक कह सकता हूं कुछ बड़बोले लोग या छोलाछाप नेता खुद को सामाजिक चिंतक बताकर अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते रहे लेकिन वास्तविकता की बात करें तो इन जातियों के लिए इन संगठनों से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है और हां ऐसा नहीं है कि अतिपिछड़ी जातियों द्वारा संचालित सभी सामाजिक संगठन अपनी अपनी जातियों के दुश्मन है इनमें ऐसे भी हैं जो बड़े पैमाने पर अपने समाज को आगे बढ़ाने का काम करते हैं लेकिन अधिकांश का मकसद चंदेबाजी के द्वारा अपनी रोजी रोटी रोजगार चलाना ही रहा है अब ऐसे सामाजिक संगठन के स्वयं हूं अध्यक्षों को शर्म आएगी या नहीं यह तो वही जाने लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कोई संगठन बिना सत्ता में हिस्सेदारी या सत्ता स्वामी बनें किसी गरीब का भला नहीं कर सकता है।
विनेश ठाकुर, सम्पादक
विधान केसरी, लखनऊ