प्रयागराजः सीता राम से हुआ प्रेम परम परमार्थ की प्राप्ति का माध्यम- जगद्गुरू स्वामी रामभद्राचार्य

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विधान केसरी समाचार

प्रयागराज। दुनिया का सबसे बड़ा परमार्थ मोक्ष की प्राप्ति है, मगर श्रीराम चरित मानस की पंक्तियों को आत्मसात करे तो पता चलता है कि सीता राम से हुए आगाध प्रेम से ही भक्त को परमार्थ से भी बड़े परमपरमार्थ की प्राप्ति होती है। संगम तट पर राम वनगमन, निषाद राज मिलन की कथा का श्रवण कराते हुए उक्त बाते तुलसीपीठाधीश्वर पदम्विभूषण जगद्गुरू स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ने व्यक्त किया।

श्रीराम वन गमन की कथा सुनाते हुए जगद्गुरू स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ने कहा कि रामलला जैसा पितृ व मातृभक्त इस सम्पूर्ण धरा पर न कभी अवतरित हुआ और न होगा। उन्होंने त्याग व भ्रातृ प्रेम की जो आधार शिला रखी वह आज भी पूरी दुनिया के लिए एक दृष्टांत है। उन्होंने कहा कि जब राम को वन गमन का आदेश हुआ तो उन्होंने अपने पिता से वन जाने की आज्ञा मांगी। इस पर राजा दशरथ ने उन्हे अपनी माता कौशल्या से आज्ञा लेने की बात कहते हुए कहा कि पिता से अधिक माता का स्थान बड़ा है। तब श्रीराम ने माता कौशल्या से वन जाने की आज्ञा मांगी। माता कौशल्या ने उन्हें कहा कि मुझसे भी दस गुना अधिक स्थान सौतेली माता का होता है। इसलिए तुम्हे वन जाने का आदेश माता कैकेयी से ही लेना चाहिए। वन गमन के समय माता कौशल्या ने श्रीराम को सीख देते हुए कहा कि अब आज से वनदेव ही तुम्हारे पिता और वनदेवी ही तुम्हारी माता है। वन के खग, पक्षी व मृग ही तुम्हारे सेवक है। जिसका दृष्टांत देते हुए कथा के दौरान स्वामी रामभद्राचार्य जी ने बताया कि माता के कथानुसार ही वन की यात्रा के दौरान राम को जटायु के रूप में पिता सा स्नेह मिला और माता के रूप में सेबरी जैसा प्रेम। सेवक के रूप में खग, मृग की तरह हनुमान जी और अंगद सदैव उनके नजदीक रहे।

माता सीता को त्याग व समर्पण के साथ भारतीय सनातन संस्कृति का प्रतीक बताते हुए कहा कि जब राम के वन जाते समय माता सीता ने साथ में वन चलने का अनुरोध किया तो राघव जी ने उन्हें तरह-तरह की परेशानिया बताकर मना किया तो माता सीता ने कहा कि वह पृथ्वी से जन्मी है। इसलिए पृथ्वी से निकले कंकड़ पत्थर उनके भाई है। वह अपने बहन को कभी भी दुःख नही पहुंचायेगे और ऐसा सौभाग्य कहां मिलेगा जब मै अपनी मां के गोद में पृथ्वी पर चैदह वर्षों तक प्रेम से सोऊ। उन्होंने श्रीराम से कहा कि जब हंशरूपी श्रीराम वन को जा सकते है तो उनकी हंसिनी मै क्यो नही। सीताराम के वनयात्रा की खबर सुनकर लक्ष्मण भी उनके साथ चलने को आतुर हुए। माता सुमित्रा से उन्होंने वन जाने की आज्ञा मांगी तो माता ने उन्हें सीता व राम को सौंपते हुए कहा कि अब आज से रामसीता ही तुम्हारे माता-पिता है, इनकी सेवा में ही तुम्हारा मोक्ष है। रथ पर बैठे श्रीराम जब तमसा नदी के तट पर पहुंचे तो उनके साथ बड़ी संख्या में अयोध्या के नगरवासी भी थे। तमसा नदी पर भगवान की माया का असर हुआ कि जब अवधवासी गहरी नींद में सो गये तो राम सीता व लक्ष्मण को साथ ले सुमन्त के साथ वह श्रृगवेरपुर की तरफ प्रस्थान कर गये। यही लखन लाल ने यह निर्णय लिया कि कहीं इन चैदह वर्षों में उन्हें भी नींद आ गयी तो श्रीराम उन्हे भी अवधपुर वासियों की तरह छोड़कर चले न जाय। यहीं सोंचकर उन्होंने चैदह वर्षो तक कभी भी शयन न करने का निर्णय लिया। श्रृंगवेरपुर पहुंचने पर श्रीराम के मित्र निषादराज ने उनका अभिनन्दन किया। दोनो मित्र गले मिले तो मनुस्मृति पर आरोप लगाने वालो को जवाब मिल गया कि मनुस्मृति में हर जगह सबको बराबर का सम्मान व स्थान दिया गया, कहीं किसी को अपमानित नही किया गया। रात्रि में परम परमार्थ की कामना को लेकर निषादराज ने भगवान श्रीराम के चरणोदक को पीया और दुनिया को यह बताया कि अमृतरूपी चरणामृत का जब तक आप पान नही करोगे तब तक उसके महात्म से परिचित नही हो सकते। स्वामी रामभद्राचार्य ने निषादराज और राम की मित्रता के विषय में कहा कि जहां संसार की सारी ममता एकत्र हो जाय वहीं प्रेम की भावना जागृत होती है। वैसा ही प्रेम राम लाला व निषाद राज के बीच भी था।